Tuesday, August 31, 2010

हाथ पर लिख दिया -'प्रेम'

बहुत पहले...
अब तो मुझे याद भी नहीं कब,
मैंने अपने हाथ पर लिख दिया था
- 'प्रेम'।

 क्यों ?
क्यों का पता नहीं,
पर शायद ये- मेरे भीतर पड़े
सूखे कुंए के लिए,
बाल्टी खरीदने की आशा जैसा था।
सो मैंने इसे अपने हाथ पर लिख दिया
-'प्रेम'।

 आशा?
आशा ये कि इसे किसी को दे दूंगा।
 ज़बरदस्ती नहीं,
चोरी से...
किसी की जेब में डाल दूंगा,
या किसी की किताब में रख दूंगा,
या 'रख के भूल गया जैसा'-
किसी के पास छोड़ दूंगा।

 इससे क्या होगा ठीक-ठीक पता नहीं...
पर शायद मेरा ये- 'प्रेम'
जब उस किसी के साथ रहते-रहते
बड़ा हो जाएगा,
 तब... तब मैं बाल्टी खरीदकर
अपने सूखे कुंए के पास जाउंगा,
 और वहां मुझे पानी पड़ा मिलेगा।

 पर एसा हुआ नहीं,
'प्रेम' मैं चोरी से
किसी को दे नहीं पाया,
वो मेरे हाथ में ही गुदा रहा।
 फिर इसके काफी समय बाद...
अब मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कब,
मुझे तुम मिली
और मैंने,
अपने हाथ में लिखे इस शब्द 'प्रेम' को,
वाक्य में बदल दिया।

"मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ"
और इसलिए तुम्हारे साथ घूमता रहा।
सोचा इसे तुम्हें दे दूंगा।
ज़बरदस्ती नहीं....
चोरी से,
तुम्हारे बालों में फसा दूंगा,
या तुम्हारी गर्दन से लुढ़कती हुई
पसीने की बूंद के साथ, बहा दूंगा।

या अपने किस्से कहानियाँ कहते हुए,
इसे बी़च में डाल दूंगा।
फिर जब ये वाक्य,
तुम्हारे साथ रहते-रहते बड़ा हो जाएगा,
तब मैं अपने कुंए के पानी में,
बाल्टी समेत छलांग लगा जाउंगा।

पर ऎसा हुआ नहीं,
ये वाक्य मैं चोरी से तुम्हें दे नहीं पाया।
ये मेरी हथेली में ही गुदा रहा।
पर अभी कुछ समय पहले...
अभी ठीक-ठीक याद नहीं कब,
ये वाक्य अचानक कविता बन गया।

'प्रेम' - "मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ",
और उसकी कविता।
भीतर कुंआ वैसा ही सूखा पड़ा था।
बाल्टी खरीदने की आशा...
अभी तक आशा ही थी। और ये कविता!!!
इसे मैं कई दिनों से
अपने साथ लिए घूम रहा हूँ।

अब सोचता हूँ,
कम से कम,
इसे ही तुम्हें सुना दूँ।
नहीं.. नहीं..
ज़बरदती नहीं,
चोरी से... भी नहीं,
बस तुम्हारी इच्छा से...।
मानव कौल

Monday, August 23, 2010

अब 'गिर्दा' के गीत हमें जगाने आएंगे


- नवीन जोशी

इस दुनिया से सभी को एक दिन जाना होता है लेकिन 'गिर्दा' (गिरीश तिवारी) के चले जाने पर भयानक सन्नाटा सा छा गया है. जैसे सारी उम्मीदें ही टूट गई हों. वही था जो हर मौके पर एक नया रास्ता ढूंढ लाता था, उम्मीदों भरा गीत रच देता था, प्रतिरोध की नई ताकत पैदा कर देता था और विश्वास से सराबोर होकर गाता था-'जैंता, एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में. (मेरी जैंता, देखना, वह दिन एक दिन जरूर आएगा).-'अपना ध्यान रखना, हां!  अभी पन्द्रह दिन पहले मेडिकल कॉलेज में दिखाकर गिर्दा को लखनऊ से नैनीताल को रवाना करते हुए मैंने कहा था.
-'मैं बिल्कुल ठीक हूं. मेरी बिल्कुल चिन्ता मत करना. सदा की तरह नेह से गले लगाते हुए उसने कहा था- 'ओ के, फिर मिलेंगे.

अब कभी मिलना नहीं हो पाएगा. हालांकि उससे जुदा होना भी कैसे हो पाएगा? वह यहीं रहेगा हम सबके बीच, गाता- मुस्कराता हुआ. उसकी ज्यादा फिक्र करने पर वह कहता भी था-'...क्या हो रहा है मुझे. और मान लो कुछ हो भी गया तो मैं यहीं रहूंगा. तुम लोग रखोगे मुझे जिन्दा, तुम सब इत्ते सारे लोग. सन् 19४3 में अल्मोड़ा के ज्योली ग्राम में जन्मे गिरीश तिवारी को स्कूली शिक्षा ने जितना भी पढऩा- लिखना सिखाया हो, सत्य यह है कि समाज ही उसके असली विश्वविद्यालय बने. उत्तराखण्ड का समाज और लोक, पीलीभीत-पूरनपुर की तराई का शोषित कृषक समाज, लखनऊ की छोटी-सी नौकरी के साथ होटल-ढाबे-रिक्शे वालों की दुनिया से लेकर अमीनाबाद के झण्डे वाले पार्क में इकन्नी-दुअन्नी की किताबों से सीखी गई उर्दू और फिर फैज, साहिर, गालिब जैसे शायरों के रचना संसार में गहरे डूबना, गीत एवं नाट्य प्रभाग की नौकरी करते हुए चारुचन्द्र पाण्डे, मोहन उप्रेती, लेनिन पंत, बृजेन्द्र लाल साह की संगत में उत्तराखण्ड के लोक साहित्य के मोती चुनना और उससे नई-नई गीत लडिय़ां पिरोना, कभी यह मान बैठना कि इस ससुरी क्रूर व्यवस्था को नक्सलवाद के रास्ते ही ध्वस्त कर नई शोषण मुक्त व्यवस्था रची जा सकती है, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के भूमिगत क्रांतिकारी साथियों से तार जोड़ लेना... रंगमंच को सम्प्रेषण और समाज परिवर्तन का महत्वपूर्ण औजार मानकर उसमें विविध प्रयोग करना, फिर-फिर लौट आना लोक संस्कृति की ओर और उसमें गहरे गोते लगाना... गुमानी, गौर्दा, गोपीदास, मोहनसिंह रीठागाड़ी और झूसिया दमाई, हरदा सूरदास तक लोक साहित्य से लेकर हिन्दी साहित्य के मंचों को समृद्ध करना.

शुरुआती दौर में काली शेरवानी, करीने से खत बनी दाढ़ी और टोपी पहन कर वह प्रसिद्ध गीतकार नीरज के साथ कवि- सम्मेलनों का लोकप्रिय चेहरा भी हुआ करता था. लेकिन समाज के विश्वविद्यालयों में निरन्तर मंथन और शोधरत गिर्दा को अभिव्यक्ति का असली ताकतवर माध्यम लोकगीत-संगीत में ही मिला और एक लम्बा दौर अराजक, लुका-छिपी लगभग अघोरी रूप में जीने के बाद उसने लोक संस्कृति में ही संतोष और त्राण पाया. तभी वह तनिक सांसारिक हुआ, उसने शादी की और हमें वह हीरा भाभी मिली जिन्होंने गिर्दा की एेसी सेवा की कि गिरते स्वास्थ्य के बावजूद गिर्दा अपने मोर्चों पर लगातार सक्रिय रहे. गिर्दा के जाने पर हमें अपने सन्नाटे की चिन्ता है, लेकिन आज हीरा भाभी के खालीपन का क्या हिसाब!

हमारी पीढ़ी के लिए गिर्दा बड़े भाई से ज्यादा एक करीबी दोस्त थे लेकिन असल में वे सम्पूर्ण हिन्दी समाज के लिए त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन की परम्परा के जन साहित्य नायक थे. जून 19६5 में लगी इमरजेंसी के विरोध में और फिर जनता राज की अराजकता पर वे 'अंधा युग' और 'थैंक्यू मिस्टर ग्लाड का अत्यन्त प्रयोगधर्मी मंचन करते थे तो लोकवीर गाथा 'अजुवा-बफौल' के नाट्य रूपांतरण 'पहाड़ खामोश हैं' और धनुष यज्ञ के मंचन से सीधे इन्दिरा गांधी को चुनौती देने लगते थे. कबीर की उलटबांसियों की पुनर्रचना करके वे इस व्यवस्था की सीवन उधेड़ते नजर आते तो उत्तराखण्ड के सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन में लोक होलियों की तर्ज पर 'दिल्ली में बैठी वह नारÓ को सीधी चुनौती ठोकते नजर आते थे.

वन आन्दोलन और सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन के दौर में उन्होंने फैज अहमद फैज की क्रांतिकारी रचनाओं का न केवल हिन्दी में सरलीकरण किया, बल्कि उनका लोक बोलियों में रूपान्तरण करके उन्हें लोकधुनों में बांधकर जनगीत बना डाला. उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में तो उनका आन्दोलकारी- रचनाकार अपने सर्वोत्तम और ऊर्जस्वित रूप में सामने आया. जब यूपी की मुलायम सरकार उत्तराखण्ड आन्दोलन के दमन पर उतारू थी, देखते ही गोली मारने का आदेश था तो 'गिर्दा' रोज एक छन्द हिन्दी और कुमाऊंनी में रचते थे जिसे 'नैनीताल समाचार' के हस्तलिखित न्यूज बुलेटिन के वाचन के बाद नैनीताल के बस अड्डे पर गाया जाता था. इन छन्दों ने उत्तराखण्ड में छाए दमन और आतंक के सन्नाटे को तोड़ डाला था. ये छन्द 'उत्तराखण्ड काव्य के नाम से खूब चर्चित हुए और जगह-जगह गाए गए.

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद उनका रचनाकार और भी सचेत होकर लगातार सक्रिय और संघर्षरत रहा. हर आन्दोलन पर वे अपने गीतों के साथ सबसे आगे मोर्चे पर डट जाते थे. नदी बचाओ आन्दोलन हो या कोई भी मोर्चा, गिर्दा के बिना जैसे फौज सजती ही नहीं थी.

अब गिर्दा सशरीर हमारे बीच नहीं रहे. अपनी विस्तृत फलक वाली विविध रचनाओं और अपने साथियों-प्रशंसकों की विशाल भीड़ में गिर्दा जीवित रहेंगे. लेकिन यह तय है कि उसके बिना चीजें पहले जैसी नहीं होंगी. उत्तराखण्ड की लोक चेतना और सांस्कृतिक प्रतिरोध के नित नए और रचनात्मक तेवर अब नहीं दिखेंगे. हां, जन-संघर्षों के मोर्चे पर 'गिर्दा' के गीत हमेशा गाए जाएंगे, ये गीत हमें जगाएंगे, लेकिन हुड़के पर थाप देकर, गले की पूरी ताकत लगाने के बावजूद सुर साधकर, हवा में हाथ उछालकर और झूम-झूम कर जनता का जोश जगाते गिर्दा अब वहां नहीं होंगे.

Wednesday, August 18, 2010

जन्मदिन मुबारक गुलजार साब!

नाम सोचा ही न था, है कि नहीं
अमां कहके बुला लिया इक ने
ए जी कहके बुलाया दूजे ने
अबे ओ, यार लोग कहते हैं
जो भी यूं जिस किसी के जी आया
उसने वैसे ही बस पुकार लिया
तुमने इक मोड़ पर अचानक जब
मुझको गुल$जार कहके दी आवा$ज
एक सीपी से खुल गया मोती
मुझको इक मानी मिल गये जैसे
आह, यह नाम खूबसूरत है
फिर मुझे नाम से बुलाओ तो!

- गुलजार

Monday, August 16, 2010

मानव का मन


मानव कौल मूलत: नाटककार हैं. लेकिन वे लेखक भी हैं. कहानी, कविता, नाटक विधा कोई भी हो जिंदगी के पेचोखम सुलझते से लगते हैं उनके यहां. उन्हें पढऩा जीवन को पढऩे सरीखा है. हालांकि वे खुद हमेशा कुछ न कुछ खोजते हुए से मालूम होते हैं. मानव जितना बोलते हैं, उनका काम उससे कहीं ज्यादा बोलता है. उनके नाटक न जाने कितने रूपों में स्मृतियों में कैद हो जाते हैं. उनकी कविताओं में कहीं मन खुलता है तो कहीं उलझता है. उनकी कहानियां पढ़ते हुए महसूस होता है कि घुटन भरे माहौल में थोड़ी सी हवा और रोशनी मिल गई हो जैसे. मेरा उनसे परिचय बहुत पुराना नहीं है लेकिन उन्हें जितना पढ़ा और जाना ये परिचय बहुत नया भी नहीं लगता. फिलहाल मानव की ये कविता- प्रतिभा

मेरे हाथों की रेखाएं,
तुम्हारे होने की गवाही देती हैं
जैसे मेरी मस्तिष्क रेखा....
मेरी मस्तिष्क रेखा,
तुम्हारे विचार मात्र से,
अनशन पे बैठ जाती है.
और मेरी जीवन रेखा
वो तुम्हारे घर की तरफ मुड़ी हुई है.
मेरी हृदय रेखा
तुम्हारे रहते तो जि़न्दा हैं,
पर तुम्हारे जाते ही धड़कना
बंद कर देती हैं.
बाक़ी जो इधर उधर बिखरी रेखाएं हैं
उनमें कभी मुझे
तुम्हारी आंखें नजऱ आती हैं
तो कभी तुम्हारी तिरछी नाक़.
पंडित मेरे हाथों में,
कभी अपना मनोरंजन तो कभी
अपनी कमाई खोजते हैं,
क्योंकि....
मेरे हाथों की रेखाएं
मेरा भविष्य नहीं बताती
वो तुम्हारा चेहरा बनाती हैं,
पर तुम्हें पाने की भाग्य रेखा
मेरे हाथों में नहीं है.

Saturday, August 14, 2010

वतन के लिये


यही तोहफ़ा है यही नज़राना
मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ
रंग में तेरे मिलाने के लिये
क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ
ऐ गुलाबों के वतन
पहले कब आया हूँ कुछ याद नहीं
लेकिन आया था क़सम खाता हूँ
फूल तो फूल हैं काँटों पे तेरे
अपने होंटों के निशाँ पाता हूँ
मेरे ख़्वाबों के वतन

चूम लेने दे मुझे हाथ अपने
जिन से तोड़ी हैं कई ज़ंजीरे
तूने बदला है मशियत का मिज़ाज
तूने लिखी हैं नई तक़दीरें
इंक़लाबों के वतन
फूल के बाद नये फूल खिलें
कभी ख़ाली न हो दामन तेरा
रोशनी रोशनी तेरी राहें
चाँदनी चाँदनी आंगन तेरा
माहताबों के वतन

- कैफ़ी आज़मी

Friday, August 13, 2010

बरस रहा है उदास पानी...


बस एक ही सुर में

एक ही लय में सुबह से
देख, कैसे बरस रहा है उदास पानी
फुहार के मलमली दुपट्टे से,
उड़ रहे हैं
तमाम मौसम टपक रहा है
पलक पलक रिस रही है
ये कायनात सारी
हर एक शै भीग-भीगकर देख
कैसी बोझल सी हो गयी है
दिमाग की गीली-गीली सोचों से
भीगी-भीगी उदास यादें टपक रही हैं
थके-थके से बदन में बस
 धीरे-धीरे
सांसों का गर्म लोबान जल रहा है.
- गुलजार