Sunday, January 14, 2018

इच्छा और साम्थर्य की डोर पर लहराती पतंगे


नीले आसमान पर उड़ती फिरती हैं रंग-बिरंगी पतंगे कि मन बावरा हुआ जाता है, मन पतंग हुआ जाता है। आसमान छूने को बेकल पतंग। नील गगन में सजी-धजी इतराती लहराती पतंग।

जिस पतंग में मन बांधे देर से उसके लहराने में खुद को लहराते महसूस कर रही थी वो अचानक कट गई। गोल-गोल चक्कर खाती धरती पर गिर पड़ने की उदास यात्रा पर चल पड़ी वो। मन नहीं था कि आसमान चूमने की ख्वाहिश लिए जो सफर शुरू किया था वो इस तरह खत्म हो। सो नीम के एक पेड़ पर टंग गई। कई दिन टंगी रही। खुद को भरमाती रही कि कटी भले हो टूटी नहीं है, कोई उसे लूट ले ऐसा नहीं होने देगी वो। लड़कों का झुण्ड तमाम उपाय करता रहा कि उस तक पहुंच सके लेकिन वो किसी के हाथ न लगी।

पतंग कटने के साथ ही वो जो एक शोर उठा था उसमें नकारात्मक सुख था, काट देने का सुख। पतंग लूटने के लिए वो जो हुजूम दौड़ पड़ा था उसमें भी कोई छीन-झपट कर कटी हुई पतंग को हासिल करने का सुख था। जिसकी पतंग कटी उसमें पराजय का दुःख था जो प्रतिशोध में अबकी जिसने काटी थी पतंग उसकी पतंग को काटने का जुनून था और उसने एक नई पतंग को डोर पर चढ़ा दिया। डोर को ढील दी। पतंग फिर आसमान की ओर चल पड़ी। आसमान छूने नहीं, किसी की पराजय का बदला लेने। पतंग का मन कोई नहीं जानता, उसका दुःख कोई नहीं सुनता। कि वो डोर से आजाद होना चाहती है और आजाद होकर भी उड़ना चाहती है, वो हार जीत का खेल नहीं जीवन का उत्सव होना चाहती है।

बचपन में पतंग के खेल देखकर मन में इच्छा होती थी कि मैं काश पतंग होती, डोर पर सवार होकर बादलों के गांव की सैर करती। काश मैं चिड़िया होती, उड़ती फिरती आसमान में। यह उड़ान की ख्वाहिश बड़े होने के साथ-साथ सवालों में बदलने लगी कि किसी और के हाथ में डोर होने का अर्थ समझ में आने लगा। कटने और काटने का खेल समझ में आना लगा। कटते ही धड़ाम से नीचे आ गिरने का दर्द समझ में आने लगा। तो एक रोज सारी डोर काट दीं और हाथों को पंखों की तरह फैलाया, उड़ने की इच्छा में सारी ताकत भर दी और महसूस किया कि सचमुच मैं उड़ रही हूं। मैंने पाया कि इस उड़ान में अकेली नहीं हूं। क्योंकि अपने मन की डोर पर चढ़कर दुनिया भर की स्त्रियां कामनाओं के आकाश पर उड़ती फिर रही हैं। जो इस तरह नहीं उड़ सकीं वो इस नई पीढ़ी की उड़ान पर मुग्ध हो रही हैं।

ये जो डोर का खेल है न, यह सदियों पुराना है। सबको अपनी-अपनी डोर की फिक्र है। डोर की मजबूती की फिक्र है। उसकी मजबूती को किये जाते हैं तरह-तरह के उपाय कि कहीं कोई कसर न रह जाए। यह खेल कुछ इस तरह रचा गया कि स़्ित्रयों को खुद को डोर के सुपुर्द करने में आनंद आने लगा। या कहंे कि यही उनके जीवन का आनंद है यह उनके मन में पैदा होते ही भर दिया गया जिसे वो जीने लगीं। उत्सव किसी और के होते सजा-संवार कर डोर पर उन्हें चढ़ाया जाता। वो चढ़ भी जातीं इस बात से अनजान कि असल में उनके हाथ में कुछ भी नहीं। यह सजना-संवरना भी उनका नहीं, किसी और के मान का, प्रतिष्ठा द्योतक है। कि आजाद होना चाहें अगर वो गहनों के बोझ से तो परिवार की प्रतिष्ठा पर बन आती है, फलाने की बहू के गले में सोने की जंजीर तक नहीं। जंजीर, यानी चेन कितने मन से धारण करती हैं हम स्त्रियां, भला जंजीरों में कैद इच्छाओं को कैसे मिलेगा खुला आसमान और अपनी उड़ान। कि वो पतंगबाजी के खेल में बस डोर पर चढ़ाई और कट जाने पर दूसरी को चढ़ाये जाने के लिए ही तैयार की जाती हैं।

लेकिन अब यह खेल बदल चुका है। पंतगों से भरा आसमान अब दुपट्टों से भरा आसमान है। यह अब मुक्त कामनाओं से लहलहाता आसमान है। बहुत सारे ख्वाब इस आसमान पर लहरा रहे हैं। रंग-बिरंगे ख्वाब। इस छोर से उस छोर तक ये ख्वाब बिंदास उड़ते फिर रहे हैं। मानचित्र पर दर्ज सीमा रेखाओं से इन्हें कोई लेना-देना नहीं। एक हिंदुस्तानी ख्वाब तुर्की के ख्वाब से गले मिलते हुए कहता है, अरे हम तो एक जैसे हैं।

कोई सौ बरस पहले रूस के महान दार्शनिक, साहित्यकार निकोलाई के उपन्यास व्हाट इज टु बि डन की नायिका वेरा की आंखों में भी कुछ ख्वाब थे। ये वही ख्वाब मालूम होते हैं जो दरअसल अब हकीकत भी हैं।

ख्वाब और हकीकत के बीच बस जरा सा फासला होता है, इच्छाशक्ति भर का। और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की वो लाइनें कि सामथ्र्य सिर्फ इच्छा का नाम है एकदम सच मालूम होता है। बस चैकन्ना रहना है इतना कि हमारी आंखों में हमारे ही ख्वाब हों, खालिस हमारे ही। क्योंकि हम स्त्रियां बरसों से किसी और के ख्वाबों को अपना मानकर, किसी और के सुख को अपना मानकर, किसी और की जीत को, हार को अपना मानकर जिए जा रही हैं लेकिन वो जिसके ख्वाब, सुख, हार, जीत, इच्छाओं को हमने कभी धर्म, कभी रीति-रिवाज, कभी उत्सवधर्मिता के नाम पर ओढ़ा हुआ है क्या उन्होंनेे कभी हमारी इच्छाओं का मान किया। उन इच्छाओं का जो उनकी बोई हुई इच्छाओं से इतर थीं। क्या हमारे सुख उनके सुख हुए, क्या हमारी इच्छाओं को उन्होंने वैसे ही माथे से लगाया?

अगर लगाया होता तो क्यों होतीं भ्रूण हत्याएं, क्यों स्त्रियों को अपनी मर्जी से पढ़ने, जीवन साथी चुनने, खाने, पहनने, बोलने, चलने पर इतना हड़कम्प मचता है। क्यों होती हैं आॅनर किलिंग जैसी घटनाएं? उनकी इच्छा आपके सम्मान की हत्या क्यों होती भला?

यह बात पहले हम स्त्रियों को समझनी होगी कि यह जो हम हैं, क्या हम ही हैं सचमुच। यह उत्सव हमारे होने का उत्सव है क्या कि हम किसी के उत्सव का सामान भर हैं, सजी-धजी कठपुतलियों जैसे।

बहुत सारी स्त्रियों ने अपनी डोर को काट दिया है, उनकी उड़ान पर जमाना मुग्ध भी है और बौखलाया भी। वो अपने घर की स्त्रियों की डोर अब और मजबूत करना चाहते हैं। विश्वास दिलाते हैं तुम जितना उड़ना चाहो उड़ो, तुम्हें पूरी आजादी दूंगा, चिंता मत करो। लेकिन इसमें यह भाव भी निहित है कि डोर तो मेरे ही हाथ में रहेगी। कभी पिता, कभी भाई, कभी पति, कभी प्रेमी, कभी पुत्र हमारी डोर के वाहक। डोर से मुक्त होने का अर्थ किसी के विरोध में जाने, किसी के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान नहीं है लेकिन डरी हुई सत्ताएं इसे इसी रूप में देखती भी हैं और प्रचारित भी करती हैं। भला बताइये, कोई अपनी मर्जी से सांस लेना चाहता है बिना आपकी परमीशन के इसमें विरोध क्या हुआ, इसमें जंग कहां से छिड़ गई?

अब स्त्रियों ने सदियों से सत्तासीन लोगों की असुरक्षा को भांप लिया है। यह डर और कुछ नहीं सत्ता खोने का डर है। जबकि स्त्रियों का इरादा सत्ता पाने का नहीं सत्ताविहीन धरती सजाने का है। कि मालिक के पदों को मिलकर ध्वस्त करो और साथी बनो। डोर सारी कट जाएं लेकिन उड़ान न कटे, न टूटे। तुम भी उड़ो जी भर के, हम भी उड़ें...यह आसमान हमारे साथ होने की खुशबू और रंगों से भर दें....

- प्रतिभा कटियार

(डेली न्यूज़ में प्रकाशित http://epaper.dailynews360.com/1499400/khushboo/10-01-2018#page/1/3)

1 comment:

गोपेश मोहन जैसवाल said...

प्रतिभा कट्यार ने बहुत मार्मिक प्रसंग उठाया है. वैसे सदियों से नारी-उत्थान के समर्थक ऐसे प्रश्न उठाते रहे हैं लेकिन इस नारी-अस्मिता के युद्ध में स्त्रियों को खुद ही कमान संभालनी होगी. स्त्री पतंग और पुरुष उसकी डोर सम्हालने वाला, यह तो आदिकाल से कहा जा रहा है. सवाल उठता है कि इस क्षेत्र में स्त्रियों को नया क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है.