Thursday, May 31, 2018

जिन्दगी की कश्मकश से रू-ब-रू कराती कवितायें



- प्रतिभा कटियार

यूँ तो समूचा जीवन ही कविता है लेकिन जीवन में कविता कहाँ टकराएगी पता नहीं. यह कविताओं का तूफानी दौर मालूम होता है. पलक झपकते ही अनगिनत कविताएँ नज़रों से गुजरती हैं, लेकिन ठहरती कुछ ही कवितायेँ हैं. पिछले दिनों ऐसी कुछ कविताओं से वास्ता पड़ा जो ज़ेहन में ठहरी हुई हैं. ये कवितायेँ हैं श्रुति कुशवाहा की. श्रुति के संग्रह ‘कश्मकश’ से गुजरते हुए महसूस होता है कि कहीं अपने ही भीतर की किसी पगडंडी से गुजर रही हूँ. अपने ही सवालों को श्रुति की मार्फत दोबारा पढ़ रही हूँ और दुनियादारी के शोर में बचाकर रख रही हूँ थोड़ी सी उम्मीद.

यह श्रुति का पहला संग्रह है. कई मायने में यह संग्रह अपनी विशेषताओं की ओर ध्यान खींचता है. इस संग्रह में जिन्दगी की छुअन महसूस होती है. जिन्दगी के सारे रंग बिना किसी तरह के कॉस्मेटिक प्रभाव के यहाँ मिलते हैं, संवेदना की तमाम परतें स्वाभाविक ढंग से खुलती हैं. रिश्तों के प्रति जीवन के प्रति, समाज के प्रति कवि की संवेदना ने इस संग्रह को गढ़ा है. इन कविताओं में जहाँ समाज की तमाम विद्रूपताओं के प्रति एक सजग नजर और नाराजगी का भाव दीखता है वहीँ नकारात्मकता से लड़ने का माद्दा भी दीखता है. इन कविताओं में बदलाव की मध्धम-मध्धम आंच में पकती जिद दिखती है और दिखती है आने वाले कल को लेकर एक उम्मीद.

संग्रह की पहली कविता ‘सही वक़्त’ कवि के मिजाज़ को खोलती है जहाँ वो कहती है ‘दिखने में आदमी जैसा/जब नहीं रह जाता आदमी/जब चारों ओर मंडराता है संकट/ वही होता है/कविता लिखने का सबसे सही वक़्त.’

लिखने की भूख, से परे लिखने को जीवन की जरूरत में तब्दील होने के रूप में देखती श्रुति अपनी कविता ‘लिखना लाज़मी है’ लिखती हैं. दुनिया किस तरह कृत्रिम होती जा रही है और उस कृत्रिमता के शोर में किस तरह सच्चाई और सरलता पीछे छूटती जा रही है इसे ‘सब महफ़ूज हैं’ में देखा जा सकता है ‘ इधर भेडिये को सौंप दी गयी है चौकीदारी/अब डरने की कोई वजह नहीं/ सब महफूज हैं.’

इन कविताओं के स्वर कवि की चेतना और सजगता को इंगित करते हैं. वह जो एक पूर्वानुमान अक्सर बन जाता है किसी स्त्री के संग्रह को खोलते वक़्त कि स्त्री विषयक स्वर होगा ही मुख्य स्वर, वह टूटता है क्योंकि संग्रह की रेंज काफी ज्यादा है. ‘निर्ममता’ नामक कविता में ऐसे ही स्वर को इस तरह दर्ज किया है कवि ने, ‘अपनी कौम और देश/ खुद नहीं चुनते बच्चे/लेकिन/ कौम और देश के नाम पर/मारे जाते हैं वो’.

कविता में बहुत सारी पर्तें खुलती हैं समय की, भीतर की बेचैनी की और वो हमें खंगालती भी हैं, मुक्तिबोध की याद आती है कविता ‘सवाल’ पढ़ते हुए जहाँ वो लिखती है ‘ये दुनिया उतनी ही बुरी है/जितनी हमने सुनी है/ ये दुनिया उतनी ही भली है/जितनी हमने देखी है/ सवाल दुनिया का नहीं/ सवाल तो यह है/कि हम किस ओर खड़े हैं.’

अपने भ्रमों को टटोलती है कवि की नज़र और ‘आज़ादी’ कविता में ढलती है कुछ इस तरह ‘ आज़ादी का जश्न मनाने का सोचती हूँ/कि याद आ जाती है मणिपुर की ईरोम चानू शर्मिला/अरुणा शानबाग, सोनी सोरी, थान्गजाम मनोरमा/ निलोफर, आसिया जान, निर्भया, प्ररेति राठी/कानों में गूंजते हैं ढेरों नाम/शिकारी घूम रहा है खुलेआम’ इसी कविता में वो आगे लिखती है, ‘ सावधान! आवाज उठाना सख्त मना है/आवाज़ उठाने की एवज में होंगे बलात्कार’. एक और कविता ‘क्या तुम जानते हो’ का जिक्र इसी संदर्भ में ज़रूरी है जहाँ कविता सवाल करती है, ‘क्या तुम जानते हो डाऊआला की जूली की कहानी/सोलह की उम्र में/मर्दों की गन्दी नज़र से बचाने के लिए/जिसके वक्षों को गर्म पत्थर से दागा गया था/कैमरून में अरसे से हो रही है ब्रेस्ट आयरनिंग’ यह कविता अपने समय और समाज में स्त्रियों के प्रति आई क्रूरता की कलई खोलते हुए सवाल करती है. इसकी रेन्ज में पूरी दुनिया की स्त्रियाँ हैं, उनके दर्द हैं, उनकी तकलीफें हैं और इन सबको जोडती है दुनिया की हर एक स्त्री की पीड़ा से, उसके प्रति की गयी उपेक्षा से और अंत में कविता कुछ यूँ कहती है, ‘चलो ये सब छोड़ो/बताओ क्या तुम जानते हो/ सालों से अपने घर के भीतर रहने वाली/अपनी पत्नी के बारे में/जो हर रात सोती है तुम्हारे बाद/हर सुबह उठती है तुमसे पहले/क्या उसने नींद पर विजय पा ली है?’

इन कविताओं को स्त्री विमर्श के खांचे में डालकर देखा जाना कविताओं को कम करके आंकना है. क्योंकि स्त्री भी कवि की कविताओं में उसी तरह आती है जिस तरह अन्य विषय आते हैं और उन सबका आना एक ही बात का सूचक है कि कवि की चिंता में यह समूची दुनिया है जिसे वो हंसी से, ख़ुशी से, मोहब्बत से भर देना चाहती है. इसके लिए वो तमाम वर्जनाओं को तोड़ने से भी गुरेज नहीं करती.

‘और हंसो लड़की’ ‘बुरी औरत’ ‘लाल रंग की लड़की’ ‘स्कूल जाती लड़की’ ‘लड़कियां’ आदि कवितायेँ इस समूची धरती को सुंदर बनाने की कामना की कवितायेँ हैं, स्त्रियों को भी इन्सान समझे जाने की बात कहती कवितायेँ हैं. इन कविताओं के ज़रिये स्त्रियों के लिए भी इस दुनिया और समाज में जगह बनाने की, उनकी अस्मिता को सहेजने की बात तो है लेकिन यह किसी किस्म के आरोप, प्रत्यारोप, और पुरुषों से किसी किस्म के भेद या उनके प्रति औफेंसिव कवितायेँ नहीं हैं.

श्रुति की कवितायेँ शोर नहीं मचातीं, वो चुपचाप असर करती हैं. सोशल मीडिया पर इन कविताओं का कोई शोर नहीं, न ही सर पर कविताओं को लेकर घूमने की कोई हड़बड़ी. कवि के संजीदा और संकोची मिजाज़ की मुनादी सी हैं ये कवितायेँ कि भोपाल शहर से एक आत्मीय रिश्ता भी खुलता है संग्रह की एक कविता में जहाँ भोपाल शहर के नाम एक खत आता है. प्रेम कवितायेँ हौले से सटकर आ बैठती हैं बिना किसी लाग लपेट के और आसपास प्रेम महकने लगता है.

भाषाई चमत्कार से कतई दूर इन कविताओं की सरलता और सहजता इनका मूल तत्व है जिसके चलते इन कविताओं से रिश्ता जल्दी ही कायम हो जाता है.

चूंकि यह पहला संग्रह है तो जाहिर है छुटपुट जगह बिखरा हुआ सा अनगढ़पन भी दिख जाता है. वह अनगढ़पन दीखता है कविताओं के चयन में. कुछ कविताओं को इस संग्रह में शामिल करने से बचा जा सकता था हालाँकि ऐसी कवितायेँ कम ही हैं. अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित यह संग्रह प्रोड्क्शन के लिहाज से भी काफी अच्छा है.

मेरे लिए आजकल के ‘मेरी कविता तेरी कविता’ के शोर के बीच एक सजग, संवेदनशील, संकोची मिजाज़ की कवि की समय से मुठभेड़ करती, सवाल उठाती और नए रास्ते बनाने में यकीन करती कविताओं से रू-ब-रू होना सुखद अनुभव है. ये कवितायेँ पेज पलटते ही पलट नहीं जातीं बल्कि जेहन में रह जाती हैं. कविताओं के सैलाब के बीच ऐसी कविताओं का होना उम्मीद का होना है.

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Wednesday, May 30, 2018

रेखा चमोली की डायरी के साथ एक यात्रा


यह 2012 की याद को पलट के देखना है. उस रोज जब मुठ्ठियों में 20 मई का दिन था और सामने उत्तरकाशी का रास्ता. अगर स्मृति दोष नहीं है तो संभवतः वह 25 मार्च 2012 का दिन था, मैं पहली बार उत्तरकाशी के रास्तों पर थी. फ्योली के फूलों से भरा रास्ता खूबसूरत पहाड़ और एक नयी दुनिया में जाने का नए लोगों से मिलने का बहुत कुछ नया जानने सीखने का उत्साह सफ़र को खुशनुमा बना रहा था. मैं बावरी सी सब कुछ देख सुन रही थी, महसूस कर रही थी.

पहले भी कई बार उत्तरकाशी गयी हूँ, वहां के शिक्षक साथियों से मुलाकातें की हैं, स्कूलों में जाना हुआ है, नदियों से दोस्ती हुई है, लोगों से प्यार हुआ है. उत्तराखंड में देहरादून के बाद उत्तरकाशी से ही पहले पहल की दोस्ती हुई. आज जब कई बरस बाद उत्तरकाशी के रास्ते पर हूँ तो लग रहा है स्मृति के वो पन्ने भी साथ हैं.

मैं रास्तों में बादलों की लुका-छिपी, फूलों की बहार ढूंढ रही थी लेकिन यह मौसम कोई और था. पहाड़ों में आग लगी हुई मिली. बादलों की लुका-छिपी की जगह धुआं नज़र आ रहा था. रास्तों में हरियाली कम नदियों में पानी कम लेकिन मन में उत्साह जरा भी कम नहीं. उत्साह की मुख्य वजह थी शिक्षिका रेखा चमोली की डायरी 'शिक्षक की स्कूल डायरी' जिसे अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने प्रकाशित किया है का विमोचन और डायरी पर शिक्षकों से बातचीत का अवसर.

रेखा शैक्षिक अनुभवों से समृद्ध शिक्षिका हैं. यह समृध्धि उनके काम के बरसों से नहीं उनके काम की गहराई से मापी जा सकती है. मैं उनसे कई बार मिली हूँ, औपचारिक व अनौपचारिक हर स्तर पर बातचीत की है, उनकी कवितायें पढ़ी हैं और रेखा को महसूस किया है. मैंने पाया है कि रेखा अपने लिखे में, अपने दिखे में और अपने जिए में एक सी हैं. मेरे तईं यह बात बेहद मूल्यवान है. शायद यही वजह है कि रेखा मैम अब प्यारी रेखा यानि सहेली रेखा में बदल चुकी है. रेखा की डायरी पर विस्तार से अलग से बात करनी होगी लेकिन यह तय है कि अब तक जितने भी पन्ने पलटे हैं उनके भीतर एक पॉजिटिव अनरेस्ट दिखा है, कुछ करने की शदीद इच्छा, बहुत कुछ जानने की, सीखने की इच्छा. मैं इन इच्छाओं का बहुत सम्मान करती हूँ इसलिए जहाँ भी ये इच्छाएं हैं वहां होना चाहती हूँ. क्योंकि कुछ भी करने से पहले इच्छा का होना जरूरी है. वरना बिना इच्छा के, बिना बेचैनी के, बिना सीखने की कोई चाह के भी कई किताबें लिखने वालों को, भाषण देने वालों को भी जानती ही हूँ.

मेरे लिए यह बेहद खूबसूरत अवसर था कि मैं भावनाओं, काम और अभिव्यक्ति में ईमानदार रेखा चमोली की किताब के विमोचन में उनके साथ रही. ऐसे साथ हमेशा आपको कुछ सिखाते हैं, परिमार्जित करते हैं. इसी अवसर पर मुझे डायरी पर शिक्षकों के साथ संवाद करने का भी अवसर मिल रहा था. कोई भी बाहरी संवाद असल में पहले भीतरी संवाद ही होता है इस लिहाज से शिक्षकों के साथ संवाद असल में मेरे ही सीखने, जानने, महसूसने और कुछ अब तक के जाने हुए को साझा करना था. यह बातचीत 3 अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग शिक्षक समूहों के साथ होनी थी. सबसे पहले हम बडकोट पहुंचे.

बड़कोट- बडकोट एक क़स्बा है. पहाड़ों को मसूरी या नैनीताल में ढूँढने वालों के लिये इसका नाम न सुना होना लाजिमी हो सकता है. लेकिन यह पहाड़ों से घिरा सुंदर सा शहर है. छोटा, सादा, सुंदर. छोटी-छोटी सब्जी की दुकानें, फलों की दुकानें, छोटी-छोटी रोजमर्रा की ज़रूरत के सामान की दुकानें. छोटी सी मार्किट जिससे गुजरना भला लगता है. बहुत सारे अजनबी लोग जो अजनबी नहीं प्यारे लगते हैं. किसी पर भी भरोसा करने को जी चाहता है. कमरों में ताला लगाने की जरूरत नहीं लगती. लोग झिड़कते नहीं किसी बात पर. हर कोई अपने काम में व्यस्त है लेकिन किसी को कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं है. मैं यहाँ पहली बार आई हूँ और महसूस कर रही हूँ कि ऐसी ही तो किसी जगह की तलाश थी. कितनी शांति है यहाँ. अजनबियत से भी ऐसा अपनापन जो कई बार अपनों के बीच भी मिसिंग लगता है.

मैं और रेखा दोनों डायट बडकोट समय से पहले ही पहुंचकर लोगों से मिलना चाहते थे. रेखा की काफी यादें जुडी हैं बडकोट से. उसके लिए यह नया नहीं है. रेखा ने यहीं डायट बडकोट से बीटीसी की ट्रेनिंग ली है. यह शहर उसके लिए पहचाना है, लोग पहचाने हैं. मैं उसके पहचाने हुए के बीच अपना अजनबी होना छुपा रही हूँ. रेखा जिस प्यार से, सहजता से लोगों से मिलती है वह मुझे बहुत विरला सा लगता है. उसमें सचमुच का अपनापन होता है. यहाँ लोग भी रेखा को खूब प्यार करते हैं, सम्मान करते हैं.

कार्यक्रम ठीक-ठीक हो जाने का सुख हमारे साथ शाम से हो लेता है. यह ठीक से होना क्या है आखिर? तालियाँ, प्रशंसा या कुछ अकुलाहट, कुछ सवाल. कार्यक्रम के अंत में शिक्षकों के सवालों ने मुझे मोहा. वो सवाल कि कैसे लिखने के दौरान आती हैं अडचनें, कैसे दूर किया जा सकता है? नियमित कैसा हुआ जाय? क्या हर कोई लिख सकता है सचमुच? रेखा कैसे वक़्त निकालती होंगी लिखने का? डायरी को बेस्ट फ्रेंड के रूप में पाना और पलटकर खुद को देखना, अपने भीतर कुछ सुधार कर पाना आदि.

सफल होना असल में सवालों से भर जाना ही तो है. अगर पुराने सवाल थे तो नए सवालों से उन्हें बदल लेने से भी है. अगर भीतर शांति थी अब तक तो उसे एक बेचैनी, एक अकुलाहट से भर देना और शुरू करना सोचना कि कुछ न कुछ तो अब करना होगा. कि जब आप जैसे आये थे वैसे ही वापस न जा रहे हों. मैं तो वैसी ही वापस नहीं जा रही थी लेकिन देख पा रही थी कि काफी शिक्षक साथी अपनी अकुलाहट को लेकर बात कर रहे थे. कुछ भावों में डूबे हुए थे . कुछ ठान चुके थे कि आज से ही शुरू हो जायगा डायरी लेखन.

उत्तरकाशी- उत्तरकाशी खूबसूरत शहर है. इस शहर की नदी के किनारे मैंने अकेले काफी वक़्त बिताया है. यहाँ पहुँचते ही फिर वही कल कल कल का शोर पुकारने लगा था. हर्षा रावत जी से मिलने का तय हुआ और नदी का किनारा पकडकर चल पड़ी उनके घर. सारे रस्ते नदी बात करती रही. वो कोलाहल, वो नदी का रौद्र रूप जो आपदा बन आया होगा. मैंने पूछा नदी से, 'क्यों तुमने रुलाया इतने लोगों को? स्वभाव से तो तुम ऐसी नहीं हो? ' नदी खामोश रही. इस ख़ामोशी में उसकी भी पीड़ा दर्ज है, ठीक वैसे ही जैसे पहाड़ों से उठते धुंए में पहाड़ों की पीडा दर्ज है, पक्षियों का दर्द दर्ज है. इस दर्द की जिम्मेदारी हमारी ही है, उत्तरकाशी में पसीना पोछते लोगों का दुःख समझा जा सकता है, जहाँ कभी पंखे होते ही नहीं थे ,अब एयरकंडिशन लगे हुए है. हर्षा जी का घर नदी के ठीक सामने है. यहाँ इसी नदी की धार के बीच पत्थरों पर बैठकर मैंने और हर्षा जी ने घंटों बात की थी. यह और बात है कि बाद में वह बात एक साक्षात्कार बना था. आज हम फिर उसी जगह थे, चाय थी, शाम थी हर्षा रावत का स्नेहिल साथ था. वापसी में हमें रस्ते में तीर्थयात्रियों का सैलाब मिला ऐसा सैलाब कि पैदल व्यक्ति भी जाम में अटक जाय. हमारे धर्म हमारी आस्थाएं हमारे रास्ते आसान तो कभी नहीं करते, हाँ रोकते कई बार हैं. ऐसा क्यों होता होगा भला. शायद हमारे ही धर्मों को देखने समझने और अपनाने का कोई दोष होगा.

अगले दिन कार्यक्रम समय से तनिक देर से शुरू हुआ लेकिन चला पूरी धुन में. यहाँ काफी शिक्षक मुझे भी जानते थे लेकिन यह कार्यक्रम रेखा के शहर में हो रहा था. यह उसकी शाम थी. वो उन लोगों के बीच थी जिनके बीच पली, बढ़ी और बड़ी हुई है. अपनी दूसरी किताब के साथ इन सबके बीच होना रेखा को उत्साह से भी भर रहा था और संकोच से भी. वो सबसे मिल रही थी. लोग उसे प्यार कर रहे थे, बधाई दे रहे थे. वो संकोच को छुपाने के प्रयास में और खूबसूरत लग रही थी. यहाँ भी डायरी लेखन पर बातचीत हुई, रेखा ने अपने अनुभव साझा किये डायरी के कुछ अंश पढ़े भी गए. इन कार्यक्रमों की आत्मीयता मोह लेती है.

रामेश्वरी लिंगवाल मैडम से कई सालों बाद मिलना हो रहा था. वो बार बार गले लग रही थीं फिर चुप होकर देख रही थीं. मैं उस भीतर घट रहे को सहेज रही थी ठीक वैसे ही जैसे रेखा सहेज रही थीं सबसे मिलना. उनकी दोनों प्रधानाध्यापिकाएं, साथी शिक्षक, दोस्त, सीनियर्स सब थे. रेखा ने कुछ बहुत कमाल की बातें कहीं मसलन यह किताब या कुछ भी लिखना एक स्त्री के लिखने और पुरुष के लिखने में जो अंतर है उसे अभी समाज नहीं पाट पाया है. स्वीकार्यता का भी मसला है. एक शिक्षक को सिर्फ स्कूल आकर पढाना और घर जाने से ज्यादा कुछ करना होता है. यह डायरी किसी सफलता की कहानी नहीं बल्कि शिक्षक के सफर की दास्ताँ हैं.

कार्यक्रम बीत चुका था, सूरज ढल रहा था ठीक आँखों के सामने और नदी की पुकार बढती ही जा रही थी.

चिन्यालीसौड- यहाँ भी पहली बार आई हूँ. रेखा आज खुद अपनी गाडी ड्राइव करके आई हैं. मैं उसकी हिम्मत को देखकर दंग हूँ. संकोच के साथ हिम्मत का मिश्रण गजब का सौन्दर्य लेकर आता है. एक संयुक्त परिवार में रहते हुए सबको साथ लेकर चलना और अपने मन को भी न छोड़ने का संकल्प सामान्य बात तो नहीं. जीवन के हर लम्हे को सुंदर और सार्थक तरह से जीने की जिद रेखा को भीड़ से अलग करती है. मुझे हैरत और सुख इस बात का हुआ कि मुझे यहाँ भी खूब जानने वाले शिक्षक साथी मिले. पहचानी आखों में खुद के लिए स्नेह देखना बताता है पिछली मुलाकातों का असर. यहाँ भी हमने शिक्षकों से शिक्षक डायरी की बाबत कुछ ज़रूरी बातें कीं मसलन क्या हो जाता है लिखने से, क्या लिखना किसी समस्या का हल है, शिक्षक की जिन्दगी में क्या बदलता है डायरी लिखने से, उसकी कक्षाओं में क्या बदलाव आता है. बात एक ही थी कि डायरी लेखन पहले खुद से रिश्ता बनाने में मदद करता है फिर बच्चों से. इससे हमारा और बच्चों का सीखना कुछ हद तक आसान होने लगता है. रेखा ने अपने अनुभवों को यहाँ भी साझा किया. उसने कहा, हम कैसे शिक्षक के तौर पर याद किये जाना चाहते हैं. हमें क्या याद है कि किस शिक्षक ने विज्ञान का कौन सा सूत्र समझाया था, किसने गणित का कोई सवाल समझाया था? नहीं, हमें वही शिक्षक याद रहते हैं जो हमारे मन को छू पाते हैं, जो हमारे टूटते हौसले पर विश्वास का मरहम रखते हैं. जो सर पर हाथ फेरकर कहते हैं कोई बात नहीं, तुमसे हो जाएगा यह काम. शिक्षक को किस तरह अपने जाति धर्म, ऊंच-नीच के पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है, स्कूल संस्था में किस तरह इनका नकारात्मक असर पड सकता है, जो बच्चों के साथ सारी जिन्दगी के लिए पैबस्त हो जाता है इस बारे में सोचने की जरूरत है.

चिन्यालीसौड में एक और युवा शिक्षक सुंदर नौटियाल ने अपनी और अपने बच्चों की स्व प्रकाशित डायरी की बाबत जब हमें बताया तो सुखद हैरानी की बात तो थी ही. विज्ञान के शिक्षक सुंदर ने विज्ञान को कैसे खेल बनाकर सिखाना शुरू किया है क्लास में वो अनुभव भी दिलचस्प थे. यह जानना और भी सुखद आश्चर्य से भर रहा था कि इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए वो छुट्टी लेकर आये थे. ऐसी भी लगन होती है शिक्षकों में.

तीनों अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग लोगों से लगभग एक सी बात करते हुए भी हम हर बार अलग थे. इस बात में शिक्षकों के संकोच, उनके सवाल, कुछ अन्य साथी शिक्षकों के डायरी के पन्ने, कुछ बच्चों की डायरी के पन्ने और बहुत सारे साथियों के प्यार के साथ थी रेखा की डायरी. इस डायरी के बहाने हुए संवाद सार्थक संवाद रहे और इस संवाद में सभी शिक्षक साथी हर लगभग हर जगह अपनी इच्छा से शामिल हुए. क्या यह सचमुच उत्साह की बात नहीं कि इतने सारे शिक्षक साथी एक जगह जमा होकर अपनी छुट्टी के समय में से समय चुराकर एक शिक्षक साथी की डायरी के पन्ने पलटते हैं, उनसे बात करते हैं और खुद भी ऐसा ही कुछ करने की इच्छा से भर उठते हैं.

शिक्षा जगत में रेखा चमोली की इस डायरी का प्रकाशित होकर आना एक बेहद सकारात्मक घटना है. 

Sunday, May 27, 2018

प्रतिरोध, शोर और जुलूस



अन्याय होगा तो प्रतिरोध भी होगा
प्रतिरोध का अपना ढब भी होगा
शोर भी मचेगा
निकलेगा जुलूस भी

जब शामिल होना उस प्रतिरोध में
अन्याय के खिलाफ मच रहे प्रतिकार के शोर में
लिखत-पढ़त में
जब थामना मशाल या मोमबत्ती
और बढ़ना आगे जुलूस में

तब ध्यान रखना कि यह शामिल होना
कहीं ‘शामिल होना भर’ बनकर न रह जाय
कहीं भोंपू भर न बनकर रह जाना तुम
घटनाओं के बाद का

कहीं अपनी ही कोई क्षुधा न पूरी हो रही हो तुम्हारी
इस शोर में
अगर ऐसा है तो चुप ही रहो दोस्त
कि कोई भी प्रतिरोध सड़कों पर बाद में आता है
पहले जन्म लेता है भीतर
और यकीन मानो,
वो तुम्हें एक लम्हा भी चैन से सोने नहीं देगा
सड़कों पर भीड़ का सैलाब उतरे न उतरे
भीतर दुःख, गुस्से और प्रतिकार का
सैलाब का उतरना जरूरी है

घटनाओं का इस्तेमाल मत करो
उन्हें जज्ब करो कि कवितायेँ कोई इंस्टेंट कॉफ़ी नहीं हैं
दर्द को सहो बूँद बूँद,
और गुस्से को पालो पोसो
'प्रतिरोध' को 'बदला' मत पढ़ो
'बदलाव' पढो
आज अगर तुम्हारी नसें नहीं फड़क रहीं
तुम्हारी आत्मा ऐसे समाज का हिस्सा होने के लिए
कुछ न कर पानी बेबसी के लिए
शर्मिंदा नहीं है
तो नहीं है कोई अर्थ किसी भी बात का.
दर्द का नहीं होता कोई मजहब नहीं होती कोई सरहद
कम से कम अपने भीतर तो
रोका ही जा सकता है इस बंटवारे को
बचाया जा सकता है खुद को हिंसक भीड़ का हिस्सा होने से.

ये कैसा ईश्वर है

कहाँ सोया रहता है ईश्वर
जहाँ उसे सुनाई नहीं देती मासूमों की चीखें
जहाँ नहीं पहुँचती अन्याय की ख़बरें
जहाँ से नहीं नज़र आता उसे
खड़ी फसल पर हुई बारिश की चोट से उभरा किसानों का दर्द

किस सुरम्य जंगल में या किसी ऊंची पहाड़ी पर
विराजमान है शान से
उस तक पहुँचने की व्यवस्थाएं हैं कितनी अलग
कि अमीरों के लिए मुहैय्या हैं वीआईपी दर्शन
और गरीबों को लगाना होता है कई घंटों तक लाइन में

कुंटलों के चढ़ावे को किस तरह लेता होगा ईश्वर
जिसमें शामिल होते हैं
बच्चों के हिस्से से चुराए कुछ कौर भी
ये कैसा ईश्वर है जिसने भर दिया है डर
कि वो पूजा, उपवास और चढ़ावों से होता है प्रसन्न
कि प्रसन्न होने का उसका वर्ग पूर्व निर्धारित है

ये कैसा ईश्वर है जो घन्टे घडियालों के शोर के नीचे
छुप जाने देता है दुःख का, पीड़ा सैलाब
वो अगरबत्ती और फूलों की खुशबू की चादर बिछ जाने देता है
बजबजाते नासूरों पर, घावों पर
ये कैसा ईश्वर है जो हालात कैसे भी हों
करता नहीं कुछ भी, कभी भी.

Saturday, May 26, 2018

प्रेम


बीत गयी शामों से चुरा ली थी
खाली हुए चाय के कप की खनक
उतरती शाम की उदासी
और तुम्हारे बटुए से गिरा वो एक सिक्का

तुम्हारी मेहनत की कमाई का वो सिक्का
मेरे प्रेम की कमाई उस शाम में जड़ गया है

वो शाम अब भी महक रही है
खाली हो चुके उन चाय के कपों में
तुम्हारी चुस्कियां अब भी बाकी हैं

बीत चुकी वो शाम हर रोज बीतती है
आहिस्ता आहिस्ता

मैं उसके खर्च होने से डरती हूँ


Sunday, May 13, 2018

माँ के लिए


अगर हम रोक सके हैं तुम्हें अपने हिस्से के सुख

हमारी खातिर सहेजने से
अपनी पसंद की चीज़ें
छुपाकर हमारे लिए रखने से
गर्म फुल्के खिलाने को देर रात तक जागने से

अगर तुम्हें नहीं भूलने दिया कि
खाने में क्या-क्या पसंद है तुम्हें
रंग कौन से खिलते हैं तुम पर
और गाने कौन से गुनगुनाती थीं तुम कॉलेज में
किस हीरो की फैन हुआ करती थीं तुम
तो शायद हम बचा सके हैं 'माँ' के भीतर
माँ के अलावा भी जो स्त्री है उसे

'निरुपमा राय मत बनो' कहकर
जब हम खिलखिलाते हैं न
तब असल में बदलना चाहते हैं
तमाम माँओं की त्यागमयी छवि
महिमामंडन वाली माँ के पीछे नहीं छुपाना चाहते हम
खुलकर जीने वाली,
अपनी मर्जी का करने वाली स्त्री को

तुम जब जीती हो न अपने लिए भी
तब खिलता है हमारा मन
जब तुम छीनकर खाती हो आइसक्रीम
तब लगता है कि बचा सके हैं हम अपनी माँ को
उसके भीतर भी, अपने भीतर भी

तुम रसोई से में पकवान बनाने से
ज्यादा अच्छी लगती हो, कैंडी क्रश खेलती हुए
बारिश में भीगने पर डांटते-डांटते खुद भीगते हुए
अच्छी लगती हो, गलत के खिलाफ लड़ते हुए
नाराज होते हुए कि 'चुप रहना किसने सिखाया तुम्हें
लड़ जाना हर मुश्किल से मैं हूँ अभी'

तुमने ही तो सिखाया
हर सफलता पर पाँवो को जमीं पर टिकाये रखना
जीना जी भर के और जीने देना भी
तुमने सिखाया तुमसे भी लड़ लेना कभी कभी
और मना लेना भी एक-दूसरे को

तुममें तुम्हारा बचा रहना ही हमारा होना है.

Friday, May 11, 2018

और होंगे तेरे बाज़ार में बिकने वाले.


जिन्दगी में किसी ख़ुदा की जरूरत नहीं. ख़ुदा आया भी अगर तो दोस्त की तरह. साथ में चाय पी, गप्पें मारीं, एक दूसरे से गिले शिकवे किये लेकिन सजदे नहीं किये. क्योंकि मोहब्बत में या दोस्ती में हम सज़दे करते थकते नहीं, लेकिन किसी की ख़ुदाई के आगे घुटने कभी टेके नहीं. जो टेके होते तो जीवन शायद थोड़ा आसान हुआ होता. यानि जीवन का यूँ पेचीदा होना खुद चुना है और इस चुनाव पर फ़ख्र है. तो ऐ दुनिया के ख़ुदाओं, खुद को ख़ुदा समझने वालों, दोस्त बनकर ख़ुदा में तब्दील होने वालों, पतली गली से निकल लो क्योंकि हम मोहब्बत के सजदे में हैं.

दोस्त बन-बन के मिले, मुझको मिटाने वाले,
मैंने देखे हैं कई रंग जमाने वाले.

मैं तो इखलाक़ के हाथों ही बिका करता हूँ
और होंगे तेरे बाज़ार में बिकने वाले.

Thursday, May 10, 2018

बेटी के नाम खत


ओ लाडली,

कोई ताकीद नहीं है यह 
बस एक बात है 
इसे सुनो सिर्फ बात की तरफ 
मानने के लिए नहीं, सोचने के लिए 

जो लोग डरायें तुम्हें 
उनसे डरना नहीं, 
भिड़ने को तैयार रहना 
ताकत जुटाना 
मजबूती से लड़ना और जीतना 
लेकिन बचाए रखना एक कोना संवाद का भी
कोमलता का भी 
हो सकता है उनके भीतर कोई दोस्त मिल जाए 
वो भय जो तुम्हें दिखा रहे थे 
उनका ही कोई भय निकले वो 
और अब तक हिंसक दिखने वाले 
दिखने लगें निरीह और मासूम 

जो विनम्रता और स्नेह से आते हों पेश 
उनसे मिलना मुस्कराकर 
करना बात मधुरता से 
भरोसा करना उन पर 
उनके कहे का रखना मान भी 
कहना अपना मन भी 
लेकिन बचाकर रखना एक संशय का कोना भी 
कि न जाने विनम्रता की परत
कब उतर जाए 
और स्नेह का कटोरा फूटा निकले 
उनके कोमल स्पर्श में कांटे उगते महसूस होने लगें 
खुद को महफूज रखने के लिए 
जरूरी है बचाए जाने 
थोड़े संशय और बहुत सारा भरोसा 

#बेटियां 



Tuesday, May 8, 2018

माँ


मां
वो मुस्कुराती कम है
बहुत कम
हंसती हैं कभी-कभार लेकिन
देखा नहीं कभी
मुरझाते हुए
उदास
निराश

उसे कभी प्रेम करते हुए
भी नहीं देखा
माथे पर किसी ममत्व भरे चुम्बन की
स्मृति नहीं
न याद है
हुलस के गले लगाना
न लोरी, न लाड

उसे रोते हुए भी कम ही देखा है
न देखा है शिकायत करते कभी
देखा उसे बस काम करते,
दौड़ते-भागते

जब वो परेशान हुई
तब और काम करने लगी
शिकायत हुई कोई
तो और काम
भावुकता ने रोकनी चाही कोई राह
तो और काम

मां एक मजबूत स्तम्भ है
बिना ज्यादा किताबों में सर खपाए
वो जानती है
जीवन के रहस्य
वो समझती
कि बुध्ध होना सिर्फ
आधी रात को घर छोड़ना नहीं
न जंगलों में भटकना भर

दाल  में संतुलित नमक डालना भी है 
दुनिया में प्रेम बचाए रखने सा महत्वपूर्ण काम

मां के पास
समष्टि का समूचा ज्ञान है
जल से पतला ज्ञान
मां अपने ज्ञान को
जीते हुए
धूप में बैठकर मटर छीलती है
बेवजह खुश होने पर लगाती हैं फटकार
यही होता है हमारे लिए माँ का प्यार.  

Thursday, May 3, 2018

क्या यह कोई यूटोपिया है ?

- प्रतिभा कटियार

सोचा था कुछ ख्वाब बुनूँगी, पालूंगी पोसूंगी उन ख्वाबों को. उनकी नन्ही ऊँगली थामकर धीरे-धीरे हकीकत की धरती पर उतार लाऊंगी. फिर वो ख्वाब पूरी धरती पर सच बनकर दौड़ने लगेंगे. नफरत का शोर थमेगा एक दिन कि लोग थक जायेंगे एक-दूसरे से नफरत करते-करते. बिना जाति धर्म देखे किसी के भी कंधे पर सर टिकाकर सुस्ताने लगेंगे. सोचा था एक रोज जिन्दगी आजाद होगी सबकी किसी भी तरह के भी से, और आज़ादी के मायने नहीं कैद रहेंगे कागज के नक्शे पर दर्ज कुछ लकीरों में. सोचा था कविताओं से मिट जाएगा सारा अँधेरा एक दिन और धरती गुनगुनायेगी प्रेम के गीत. नहीं जानती थी कि यह कोई यूटोपिया है, नहीं जानती थी कि ये ख्वाब देखने वालों की आँखों को ही ख़तरा होगा एक रोज. नहीं जानती थी कि जिन्दगी को सरल और प्रेम भरा बनाने का ख्वाब इतना जटिल होगा और उसे नफरत से कुचल दिया जाएगा.



हमारे सामने जो समाज है, जो आसपास से उठता धुआं है, यह जो मानव गंध है, हथियारों की आवाजें हैं, मासूमों की कराहे हैं, जुर्म हैं, जुर्म छुपाने के इंतजामात हैं वो किसने बनाये हैं आखिर? क्या हम सब इसमें शामिल नहीं हैं. हालात के प्रति निर्विकार होना भी हालात में शामिल होना ही है. अपने प्रति हो रहे जुर्मों को न समझ पाना भी एक समय के बाद अज्ञानता नहीं मूर्खता बन जाती है.



राजनीति से परे कुछ भी नहीं, मौन भी राजनीति है, बोलना भी. किस वक़्त मौन होना है किस वक़्त चीखना है सब राजनीति है, इस राजनीति को समझना जरूरी है. हर किसी को. कोई राजनैतिक दल नहीं होते कभी इंसानों के साथ वो खड़े होते हैं अपने दलगत स्वार्थों के साथ. उनकी भाषा,उनके जुमले, उनके आंसू, उनके वादे सब झूठ है, हमें खुद खड़ा होना एक दूसरे के साथ मजबूती से ठीक उसी तरह जैसे हम खड़े थे अंग्रेजों के खिलाफ. देश के भीतर के, अपने आसपास के और कई बार तो अपने ही भीतर के दुश्मन को पहचानना होगा हमें. कि अब नहीं तो कब आखिर?



यह हमारे बच्चों के लिए जरूरी है. उनके आज के लिए उनके आने वाले कल के लिए. कैसा आज दिया है हमने अपने बच्चों को, कैसा भविष्य रख रहे हैं हम उनकी हथेलियों में क्या हम सचमुच सोच नहीं पाते? क्यों हमारी आँखों में ठूंस दिए गए दृश्य ही हमारा सम्पूर्ण सत्य बन जाते हैं और हम उन जबरन दिखाए दृश्यों के आधार पर खून खराबे पर उतर आते हैं. इससे ज्यादा दुखद क्या होगा कि हमने दर्द का बंटवारा कर लिया है. एक धर्म का दर्द दूसरे धर्म के दर्द से बदला ले रहा है. ईश्वर सो रहा है बावजूद हमारे तमाम घंटे घड़ियाल बजाने के. अल्लाह भी खामोश है सब देख रहा है चुपचाप हालाँकि अज़ान की आवाज गूंजती है वक़्त की पाबंदी के साथ.



मुझे ये दुनिया नहीं चाहिए. मैं अपने बच्चों को डर के साए में घर से विदा नहीं करना चाहती, मैं नहीं चाहती कि मेरा बच्चा किसी भी तरह की किसी से भी नफरत के करीब से भी गुजरे, इन्सान ही नहीं पशु, पक्षी प्रकृति से भी उसे हो वैसा ही लगाव जैसा मुझे है उससे. क्या यह असम्भव है? क्या हम सब ऐसा नहीं चाहते? इसके लिए कोई कानून नहीं आएगा इसके लिए हमें अपने भीतर उतरना पड़ेगा. जबरन हमारे भीतर जो बंटवारे उंच नीच, धर्म जाति स्त्री पुरुष की खाइयाँ बना दी गयी हैं हमारे जन्म से ही उसे पहले समझना होगा, उसे पाटना होगा. कि जन्म सबका धरती पर हुआ है इस धरती को खूबसूरत बनाने और पहले से खूबसूरत धरती के सौन्दर्य को जीने के लिए. शुरुआत हमको ही करनी होगी खुद से. आइये, खुद से बात करना शुरू करें बिना किसी पूर्वाग्रह के...

Wednesday, May 2, 2018

नए ज़माने की नयी इबारतों के बीच


संवेदनायें बन गयी हैं मैनेजमेंट के कोर्स का चैप्टर
बाज़ार ने हड़प ली है मासूमियत, अल्हड़पन, मातृत्व जैसे शब्दों की नमी
बच्चे जानने लगे हैं कि मदद के बदले मिलते हैं नम्बर
लपकने लगे हैं वो ज़रूरतमंदों की मदद की ओर
मदद के लिए नहीं, नम्बरों के लिए

बचे रहें ज़रूरतमंद हमेशा
इसका इंतजाम करती है राजनीति
ताकि मददगार ऊंचे करते रहें कॉलर
जयकारे लगते रहें महान और दयालु लोगों के नाम के
और वोट बैंक सुरक्षित रहे

गरीबी' अब समस्या नहीं इम्तिहानों में आने वाले नम्बर है
सत्ताओं की झोली भरने वाला वोट है
वाद विवाद, प्रतियोगिता और निबन्ध का विषय है
कविताओं, कहानियों, उपन्यासों की ऊष्मा है
फ़िल्मी कहानियों की बासी पड़ चुकी स्क्रिप्ट है

शिक्षा रह गयी है डिग्रियों का ढेर
स्कूल कॉलेज बन चुके हैं कारखाना
ऊंची नौकरी, रुतबा और पैसा कमाने का

वैज्ञानिक डरते हैं काली बिल्लियों के रास्ता काटने से
गणितज्ञ बचाकर रखना चाहते हैं
गणित के डर से बना बाज़ार
अंग्रेजी ने झुका रखा है अन्य भाषाओं का सर
और हिंदी दिखा रही है अकड़ लोक की भाषाओं को


केबीसी ने हड़प लिया है ज्ञान का अर्थ
कि सूचनाओं का संग्रह नहीं होता ज्ञान
और जो होता वो ज्ञान तो जुए के खेल में न होता तब्दील


प्रेम अब बन गया है फैशन
फेसबुक, ट्विटर का प्रोफाइल स्टेट्स
कॉफ़ी हाउस की मुलाकातों का उबाल
फ़िल्मी दृश्यों में एक-दूसरे को खोजते हुए
सेल्फी से ब्रेकअप तक का सफर

दुःख किसी इश्तिहार सा टंगा है फेसबुक वॉल पर
प्रेम उमड़ा पड़ रहा है उबाऊ कविताओं में
रिश्ते दम तोड़ रहे हैं उफनती तस्वीरों के नीचे
मुस्कुराहटों के भीतर पल रहा है गहरा अवसाद

जेल जा रहे हैं देश और समाज के बारे में सोचने वाले
और देशप्रेम के शोर के बीच
सुरक्षा की मांग के लिए मार खा रही हैं लड़कियां

देश और समाज से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं पार्टियों के झंडों के रंग
कश्मीर अब अपनी खूबसूरती की लिए नहीं धारा 370 के लिए जाना जाता है
गाँव किसानों की समस्याओं, धान की खुशबू, गेहूं की लहक के लिए नहीं
फ़िल्मी दृश्यों या शादियों की थीम के लिए खंगाले जाते हैं


'सब कुछ ठीक है' के चुन्धियाए हुए दृश्यों के बीच
एक बच्चा मिट्टी पर उकेर रहा है कुछ सपने
कोई युवा अपनी जड़ों की तलाश में लौटता है अपने पुरखों के गाँव
कोई स्त्री याद करती है
कुँए पर पानी भरती बुआ और चाचियों के कहकहे
रहट की आवाज़, पुआल के ढेर और ताज़ा बनते गुड़ की खुशबू

(प्रभात खबर में प्रकाशित )

https://l.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fwww.prabhatkhabar.com%2Fnews%2Fnovelty%2Fpratibha-katiyar-prabhat-khabar-literature%2F1086893.html&h=ATNvbDhpgr_6NlhaHuEh_D05nPJby_mtFTVzZYAZ1WE7ejNdgD19JcCuj-pzDxeFWWCDEkMTTpCwpL29MhWrZ5-4Nk3iAvNWGPk-a0ZEdoLTUydWXkYo

हमारे बच्चों को किसी से कम मत समझिये



- प्रतिभा कटियार

उत्तराखंड में इस बरस एनसीईआरटी की किताबें चलेंगी. इस खबर के साथ ही समूचे उत्तराखंड में दो तरह की हलचल पैदा हुई. एक जिसमें थोड़ी एन्ग्जाईटी यानि थोड़ा तनाव था, कैसी किताबें होंगी, क्या होगा, कैसे मिलेंगी बच्चों को, क्या वो हमारे बच्चों के लायक होंगी, क्या हमारे बच्चे उन किताबों के लायक होंगे आदि दूसरी हलचल थी बाजार की जो इस फैसले से होने वाले व्यावसायिक नुक्सान के चलते आहत था, लेकिन एक तीसरे तरह की हलचल भी देखने को मिली जिसमें ख़ुशी और संतोष शामिल था कि ‘अरे वाह हमारे बच्चों को भी अब अच्छी किताबें मिलेंगी, वही किताबें जो प्राइवेट स्कूलों के बच्चों के पास होती हैं.’ दरअसल यह तीसरी हलचल अक्सर पहली और दूसरी हलचल के नीचे अक्सर दब सी जाती है जबकि बदलाव की शुरुआत इसी हलचल से होनी है.

इस तीसरी हलचल में वो शिक्षक शामिल हैं जो सचमुच अपने बच्चों (स्कूल के बच्चों) को बेहतर नागरिक बनाना चाहते हैं, वो चाहते हैं कि किसी से कम न आंकें जाएँ उनके बच्चे, वो भी अवसरों का पूरा लाभ ले सकें क्योंकि उन्हें अपने बच्चों पर यकीन है कि वो योग्यता में किसी से कम नहीं हैं. अगर कोई फासला है उनमें और अन्य बच्चों में तो वो है हालात का, सुविधाओं का. जिसके लिए किसी भी सूरत से न वो बच्चे जिम्मेदार हैं न ही उनके माता पिता. इन्हीं हालात में, उन्हीं सीमित सुविधाओं (जिसमें भरपेट खाना न मिलना भी शामिल है) के बीच अगर कोई है जो इन बच्चों का हाथ थामकर उन्हें मुख्यधारा में चलने, दौड़ने और बेहतर जीवन जीने, सुंदर नागरिक बनाने में मदद कर सकता है वो है शिक्षक. ये वो शिक्षक हैं जो समझते हैं अपना दायित्व.

इन शिक्षकों को आप कभी यह शिकायत करते नहीं पायेंगे कि, ‘इन बच्चों को कोई सिखा नहीं सकता.’ ‘क्योंकि इनके माँ बाप घर पर ध्यान ही नहीं देते, हम कितना कर लेंगे’ ‘जब ये रोज स्कूल आते ही नहीं, तो इन्हें कौन पढ़ा लेगा’ ‘इनसे कुछ न हो पायेगा, कितना भी कर लो.’ इन नकारात्मक जुमलों को ये शिक्षक आसपास फटकने नहीं देते कि वो समझते हैं कि उनके सामने जो बच्चे हैं हो सकता है पूरी नींद लेकर ही न आये हों, हो सकता है उन्हें भरपेट खाना ही न मिला हो. वो जानते हैं कि स्कूल से जाने के बाद उन्हें परिवार के पोषण के लिए घर के कामों में मदद करनी होती है, खेतों में काम करना होता है, ठेला लगाना होता है, मजदूरी करनी होती है या कुछ और भी. ऐसे में अगर ये बच्चे स्कूल आ रहे हैं तो यह भी कोई कम महत्वपूर्ण बात नहीं है. ये शिक्षक बच्चों के अभिभावकों से बच्चों के घर पर न पढने की शिकायत नहीं करते बल्कि उन्हें आश्वासन देते हैं कि उनका बच्चा बाकी बच्चों से कम नहीं है, और जो परेशानी उसे सीखने में आ रही है उसे दूर करने की जिम्मेदारी खुद शिक्षक की है, अभिभावकों की नहीं.

ये शिक्षक लड़ जाते हैं उन लोगों से जो सरकारी स्कूल के बच्चों यानि ‘उनके बच्चों’ को जरा भी कमतर समझते हैं. ऐसे शिक्षकों का होना कोई यूटोपिया नहीं है, उनसे आप उत्तराखंड के तमाम स्कूलों में मिल सकते हैं. मेरी मुलाकात तो खूब होती रहती है, और मैं इन मुलाकातों को याद रखती हूँ. हाल ही में देहरादून जिले के डोईवाला ब्लॉक में ऐसे शिक्षकों के एक समूह से मिलने का अवसर हुआ. मौका था एनसीआरटीई की किताबों की समीक्षा का. जो दरअसल समीक्षा से ज्यादा उन किताबों से रू-ब-रू होने का अवसर था. शिक्षकों ने पूरे दो दिन लगाए और किताबों को ठीक से उल्टा-पुल्टा पढ़ा, समझा वह भी लर्निंग आउटकम के सापेक्ष कि आखिर ये किताबें शिक्षा के उन उद्देश्यों के कितने करीब हैं जो इनसे अपेक्षित हैं.

शिक्षक पूरे मनोयोग से किताबों में डूबे रहे, चर्चाएँ की, कुछ नोट्स बनाए, कुछ चीज़ें बिन्दुवार नोट कीं. अंत में जब अनुभवों की साझेदारी के दौरान कुछ शिक्षकों ने आशंका जाहिर की कि ‘किताबें तो बहुत अच्छी हैं लेकिन शायद उनके स्कूल के बच्चे अभी इन किताबों की योग्यता नहीं रखते’ तो तीसरी हलचल यानी सकारात्मक सोच वाले तमाम शिक्षकों ने लगभग मोर्चा ले लिया कि उनके बच्चों को कमतर न समझा जाय. उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘एनसीआरटीई की किताबें हर लिहाज से बेहतर हैं और यह ख़ुशी की बात है कि उनके बच्चों को ये किताबें मिलने वाली हैं. हो सकता है पहले साल किताबों से रिश्ता बनाने में शिक्षकों और बच्चों दोनों को थोड़ी ज्यादा मशक्कत करनी पड़े लेकिन बहुत जल्द रिदम बन जायेगी.’ सवाल उठे कि ‘इन किताबों में राज्य के संदर्भ नहीं है, लोक से जुड़ाव नहीं है’ जिसके जवाब में शिक्षकों ने खुद कहा कि, ‘कोई भी पाठ्य पुस्तक एकमात्र जरिया नहीं होता पढ़ाने का. इसमें मौजूद किसी भी पाठ को स्थानीय संदर्भ से जोड़कर शिक्षक पढ़ा सकते हैं. किसी अन्य पठन सामग्री की मदद भी ले सकते हैं.’

एक सवाल उठा कि, ‘हमारे यहाँ के बच्चे तो अभी ठीक से हिंदी नहीं पढ़ पाते ऐसे में उन्हें अंग्रेजी कैसे पढ़ाई जायेगी’ जिसका जवाब भी वहां मौजूद शिक्षकों ने ही यह कहकर दिया, ‘अगर हम शिक्षक ठीक से प्रयास करेंगे अपने बच्चों पर भरोसा करेंगे तो वो हिंदी और अंग्रेजी सब सीख जायेंगे.’ बातचीत का अंत हुआ इस वाक्य के साथ ‘हमारे बच्चों को (सरकारी स्कूलों के) किसी से कम मत समझिये.’

यह सारी बातचीत शिक्षकों के बीच की है जिसमें पहली हलचल यानी नकारात्मक भाव लगभग अलग-थलग पड़ चुका था. यह संवाद इतना सुंदर और इतना आशावान था कि इसके आगे सारी नकारात्मकताएँ औंधे मुंह गिरी पड़ी थीं. जिन शिक्षकों को अपने बच्चों पर इतना भरोसा है उनके रास्ते में भला कौन सी अडचन आ सकती है बस कि इस तीसरी हलचल यानी सकारात्मक प्रयासों की, सकारात्मक सोच की हलचल को और तेज़ करना है, दूर तक इसका विस्तार करना है.